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Thursday, February 28, 2013

तेरे सपने... तेरी उड़ान (Tere Sapne... Teri Udaan)

दूर आस्मान पऱ जब तूम उड़ान भर रहि थि।
मेरा मन पिन्जरेसे  निकल तेरे बाँहोंसे लिपट रहि थि।।

तूमसे मिलके दिशाओं में एक अप्नेपन कि मेहेक उट्ठी हे।
ऐसा लगा जैसे मेरा अस्थित्व तुमसे हि बना है।।

तेरि अदा कुछ अलग तो नहिं हे, फिर भि खाश लगति है।
सब थमसा  जाता हे जब जब तू पास से गुज़रती है।।

ज़िन्दगी को खुलके जिनेकि तेरि जो चाह हे।
मेरे दिल मैं वोह खाश जगाह बना चुकि है।।

तेरी आँखों मैं वोह जो हंसी रेहती है, कुछ बात है।
जो तेरे दिलसे निकल जुबां पर आना चाहती हे।।

तुम मेरी हो नहीं सकती ये बात मालूम मुझे नहीं है।
मानों या न मानों जोंदगी तुम बिन लगती बेजान सी हे।। 

दुनिया वालोंको परे कर दिया मैंने इस प्यार को समझने से।
तुम समझोगी, ऐसी कोई आस नहीं राखी है मैंने तुमसे।।

तुम्हे कोई चोट पहुंचे, ये मैं सह नहीं सकता।
तुम्हारे आँखों मैं फिर कभी आँसू आये, ये मैं देख नहीं सकता।।

इन चार दीवारों मैं उजाले की जो एक किरण आती है।
उसमे तुम्हारी यादों की मेहेक आती हे।।

मौत अपने गोदी मैं बुलाने से पहले एक दिवस तेरे संग गुजारना चाहूँगा।
हर जनम मैं तुझे अपने जीबन संगिनी के रूपमें पाने की आश रखूंगा।।

हर मौसम मैं तेरा रूप मैं ढूंडता रेहता हूँ।
हर रंग मैं तेरी खुबसुरती देखता रेहता हूँ।।

तुम्हारे लिए जीवन जाये तो जाये।
तुम्हारा सपना कोई तोड़ न पाए।।

अपनी उड़ान ज़रूर भरना, येही हर क्षण प्रार्थना  करता हूँ।
दूर आस्मानमें उड़ान लेती हुई तुम्हे देखना चाहता हूँ।।

तेरे सपने, तेरी उड़ान। और क्या चाहिए। कुछ भी तो नहिं।




This poetry I have been inspired by some of my friends' and their love for each other...

Hope you like it...

♥ ~ Smile

Thursday, October 29, 2009

खामोशी क्या खुद खामोश होती है? (Is silence silent in itself?)

खामोशी क्या खुद खामोश होती है!!

सुबह की किरण जब अंधियारे को
चिर पूरी दुनिया को रोशन करती है
बेचैन फूल सारे खिल उठते हैं

पंछियाँ चेह्चेहाने लगती हैं
टीम टीम तारें सब घबरा
कहीं दूर भाग जाती हैं

चेहेक उठती है दुनिया
और साथ जाग उठते हैं
ये दुनिया वाले

फूल अपनी पंखुडियां हिला
मुस्कुराती निखर उठती हैं, और लगती हैं
करने हवासे कितनी सारी बातें

दूर गगन मैं सूरज सीना तान
खडा हो जाता है, उसे देख लोग
अपने काम मैं निर्लिप्त हो जाते हैं

धीरे धीरे शाम को जब नशा चढ़ने लगता है
झूम झूम के वह सारे जगपे
अपने भांग का रश चढाते जाता है

उसकी मादिरा व्याकुल किसी मन् को
मदहोश कर जाती है, सन्नाटे की तलाश मैं
वह मन् दूर गगन् को ताकता रेहता है

ढलते सूरज के दुपट्टे मैं
मुहं छुपाकर उसकी नज़रें
तन्हाई से गुफ्तगू करती हैं

तब मन् के सागर मैं उथल पुथल
सी होने लगती हैं, ये मन् बिना मुहं खोले
अपने भाव से सारी फ़िज़ा से बातें करती हैं

उस खामोशी के भंवर मैं
बस एक ही ख़याल आता हैं
बस बार बार एक ही सवाल आता है

खामोशी क्या खुद खामोश होती है?

मोर को जैसे काले बादल का
चंद्रमा को जैसे काली रात का
मुझे इंतज़ार है उसी तरह इस सवाल के जवाब का


फिर मिलते हैं अगले ब्लोग़ मैं...
♥ ~ मुस्कान
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